बुधवार, फ़रवरी 22, 2012

क्या खोया क्या पाया

मैं पतली धार
दबी सहमी सी
कड़े चटानों से

किसी तरह फूटकर
अपने अस्तिव को बचाये
जन्मी अजन्मी सी
सकुचाती घबराती
बह चली झरना बन
राह में बलखाती
इठलाती मिली इक नदी
कहा भटक जाओगी
समा जाओ मुझमें
सुरक्षा का भाव पाकर
मिल गई उसमें
नदी चलने लगी
अपनी मनमर्जी से
उसका वेग बढ़ा ,आकार बढ़ा
किनारे फैले, नाम बढ़ा
पर मैंने अपना खोया था
अस्तित्व ,,,, 
अपने नाम, अपनी पहचान का
किंतु गम इसका नहीं था
गम तो था
मेरा लरजपन अब
उसकी मर्जी पर कैद था
नदी आगे बढ़ी
बड़ा बनने की चाहत में
सागर से जा मिली
पर अब वो भी पछताती है
भौतिक सुखों की चाह में
अस्तित्व तो जाता रहा
पानी भी खारा हो गया है !!  जय हो !!

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सटीक रचना.......बधाई......
    निश्चित ही बड़ा बनाने की चाह में अस्तित्व विलोपित हो जाता है....

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  2. संजय जी वाकही में आप की रचनाये बहुत ही सुन्दर और सटीक है बहुत बहुत धन्यवाद् जी

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  3. संजय जी वाकही में आप की रचनाये बहुत ही सुन्दर और सटीक है बहुत बहुत धन्यवाद् जी

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  4. बहुत अच्छी रचना । गद्य और पद्य दोनों में आपकी रचनात्मक ऊर्जा देखते ही बनती है...

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  5. मेरे ब्लाग http://mankamrigchhauna.blogspot.com पर आपका स्वागत है।

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