गुरुवार, मई 17, 2012

गुफ्त”गू”

बहुत कड़वा लिखते हो तुम
मै कहाँ लिखता हूँ
?
जो देखता हू वही कहता हूँ
ठीक है, कहते तो हो
मैं कहता भी नहीं
कलम लिख जाती है
तो फिर तुम्हारी कलम बड़ी रूखी है
आपकी कलम दें लिख कर देखूँ
जनाब ये भी वैसी ही लिख रही है
तो फिर तुम्हारी कलाईयों का दोष है


हाँ ये हो सकता है
मेरी कलाईयों में स्वर्ण आभूषण नहीं
लोहे का कड़ा है 

नहीं फिर ये वजह नहीं
तुम्हारे मेज की स्थिति
बैठने पर मुख की दिशा
वास्तु सम्मत नहीं होगी

इसका मुझे ज्ञान नहीं
हाँ वातानूकूलित कमरे में
लिखता होता तो
शायद कुछ कहता
दोपहर के धूप में
खुले आसमान के नीचे
दिशा का भान कहाँ रहता है
बस जिस दिशा में सूरज हो
उस ओर पीठ कर लिखता हूँ
क्या ये वास्तु विरूध्द है ?



भूख से बिलखते बच्चे
फटी हुई साड़ी में अर्ध नग्न माँ
ये फैशन शो तो नहीं
अगर होता तो शायद  
कुछ तो सौंदर्य बोध होता
तो फिर शायद लिख पाता

गोरी की कलाई , बलखाती अंगड़ाई
कृत्रिम सहारों से उरोजों का उभरना
नितम्भों का सलीके से मचलना
पर बदकिस्मती से मेरे दोस्त
जिंदगी जगमगाते फैशन शो का रैम्प नहीं
हथेलियाँ कम कपड़ों पर तालियों के लिए नहीं
वहशी पंजे नोंचने के लिए उठते है  
यहाँ तन ढकना मजबूरी है
, आर्ट नहीं
याद रख ये जिंदगी का कैनवस है
कमबख्त किसी माल्या का कैलेंडर नहीं ॥ जय हो ॥

मंगलवार, मई 15, 2012

वस्तु विनिमय


सोचो अगर रूपिया ना होता
वस्तु विनिमय ही चलता होता


क्या करते राजा कलमाड़ी  
कैसे लक्ष्मण बाँगड़ू होता

गाँधी तुम कहाँ पर छपते

गाँधीवाद कहाँ फिर होता

कौन से बंडल फिर लहराते
कैसे प्रश्नकाल फिर होता 
 
ना तो संसद सठिया पाती
चोरों का ना फिर जमघट होता

ना बाबा सलवार पहनते
ना अन्ना का अनशन होता 

कैसे निरमल की किरपा बरसती
कैसे दिनाकरण का प्रेयर होता

इतनी बाते क्या क्या बतलाऊँ
खुद ही सोचो क्या क्या ना होता 

पर एक बात जो टीस हैं दिल पर 
सचमुच अगर रूपिया ना होता
सबसे सुखी हम बस्तरिया होते
नक्सलवाद कहाँ फिर होता   ॥ जय हो ॥

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