शुक्रवार, जुलाई 15, 2011

सरकारी प्रवचन

गुरूपूर्णिमा के दिन एक सज्जन पास आये
मुख में  पान दबाये
कुछ देर तक खड़े पगुराये
फिर पीकदान कर हमसे फरमाये
राजनीति किसे कहते हैं हमें बतायें
और गुरूदेव होने के नाते
आप हमें सविस्तार बतायें
 
हमने आदतन उनसे कहा श्रीमान
अगर आप चाहतें हैं पूरा व्याख्यान
तो पहले मंगाये कुछ नाश्ता
और एक व्ही आई पी पान

उन्होने कहा मतलब नहीं समझा श्रीमान

देखिए हमारे यहाँ कुछ मुफ्त नहीँ मिलती
और बिना आग के तो घी भी नहीँ पिघलती

श्रीमन पहले तो चकराये
फिर बड़े रौबीले ढंग से
दार्शनिक अँदाज में फरमाये
आप तो बड़ी घटिया  बातें करते हैं
अरे विद्यादान को पैसोँ से तौलते हैं

हमने उन्हे बड़े आदरपूर्वक बैठाया
शांत चित्त कर समझाया
ये बातें घटिया नहीं बहुत जरूरी है
श्रीमान कायदा कानून भी तो जरूरी है
जिसा तरह मैच से पहले
वार्म अप किया जाता है
उसी तरह किसी भी व्याख्यान से पहले
पान चबाया जाता है   

और विद्या को  पैसोँ से थोड़े तौल रहे हैं
ये तो रिवाज के तौर पर गुरूदक्षिणा ले रहे हैं
गुरू दक्षिणा की परम्परा
प्राचीन काल से चली आ रही है
एकलव्य द्रोण प्रसंग आज तक
इसकी याद  दिला रही है

ये अलग बात है हम विद्यादान से
पूर्व ही दक्षिणा माँगते हैं
इक्कसवीं सदी के गुरूदेव  
ऐसे ही नहीं कहलाते हैं
यहाँ सबकुछ एडवांस में हो रहा है
आदमी आदमी का भरोसा खो रहा है
ऐसे मे हम क्यों कोई रिस्क लें
विद्यादान के बाद दक्षिणा का क्यों चांस लें 

लेकिन अब तो इसे सरकार द्वारा भी
शिष्यों हित में अपनाया जा रहा है
पहले से ही रेट फिक्स कर
एकलव्य जैसी घटना फिर होने से बचाया जा रहा है
कोई गुरू अब विद्यादान से ऋणी कर
इमोश्नली ब्लेकमेल नहीं कर सकेगा
फिर किसी एकलव्य का अँगूठा व्यर्थ में नहीं कटेगा

आप तो बहुत दूर की सोचते हैं
कहाँ की बात कहाँ से जोड़ते हैं

आप अब हमे कुछ समझ पा रहें हैं
हमारे सानिध्य का लाभ पा रहें हैं

इतना सुन श्रीमान हमारे शास्त्रीय तर्क से घबराये
फौरन हमारी डिमाण्ड के अनुसार जलपान मंगवाये
नेताओं की शैली में हम उसे यथास्थान पहुँचाये
फिर मुख शोधन क्रिया हेतु मुँह में पान दबाये
उनसे हमने बेशर्मी से जैसे नजर मिलाये 
उनके चेहरे पर कृतज्ञता के भाव उभरकर  आये

अब आप बड़े ही निश्छल निष्काम इंसान लगते हैं
विद्यादान हेतु सुयोग्य पात्र लगते हैं
अपने ज्ञानचक्षु खुली कीजिए
हमारी एक एक बात आत्मसात कीजिए

राजनीति व्याकरण की सिर्फ पहेली है
वेश्यावृत्ति की नाजायज सहेली है
वेश्यावृत्ति तो मजबूरी में जिस्म बिकवाती है
राजनीति स्वेच्छा से आत्मा को बेच आती है

प्राचीन युग में जिससे प्रजा का पोषण हो राजनीति कहलाती थी
वर्तमान में जिससे प्रजा का शोषण हो राजनीति कहलाती है

जो भाई को भाई से लड़वाती हो
बेटे की हत्या करवाती हो
बहन का व्यापार कराती हो
सरे राह माँ को बिकवाती हो
आज के दौर में मेरे दोस्त राजनीति कहलाती है

हमारी बात सुन श्रीमान विस्मित हो आये
आँखों में कुछ नीर भर आये
बोझिल मन से कहा
गुरुदेव इतना कष्ट करें
अपनी अंतिम पंक्तियोँ को
सरल शब्दों में व्यक्त कर
राजनेताओं की वास्तविकता का वर्णन करें

तुमने बड़ा ही विकट कार्य सौंपा है
एक समोसे से अमुल्य निधि ऐंठा है
कभी कफन का रंग भी देखा है
लाश को श्मशान की तरफ जाते देखा है
ये नेता भी अपनी आत्मा को मार
सफेद लिबास में बड़ी शान से घूम रहे हैं
और चार सुरक्षा कर्मी के सहारे
अपनी जिंदा लाश ढो रहे हैं

अब मुझे क्षमा करें , और नहीं दे सकता ज्ञान
व्याख्यान को यहीं देना पड़ेगा विश्राम
क्योंकि आपके द्वारा चुकाये गये गुरूदक्षिणा की समय सीमा
यहीं खत्म होती है श्रीमान

बुधवार, जुलाई 13, 2011

पिग्विजय बाण

इस स्तुति के पुर्व भोगी अपना मन कलुषित कर ह्रदय क्लेश, कटुता, वैमंस्यता और नीचता से  परिपूर्ण कर ले !

हे पिग्गीमुखी नर
चिरकुट विदुर श्वान
भद्रजनों के भक्षक
तुम हो असुर समान  

तुम नराधम नरभक्षक
तुम हो अधमपति
तुमसे ही घबराते
नर, पशु और पाषाण  

किससे हुई ये गलती
किसने रचा तुम्हे
यही सोचते हरदम
ईसा, खुदा, श्री राम  

अनजाने में तुमको
डॉग विजय जो कहा
मानहानि का दावा
कर बैठे सब श्वान  

भूत प्रेत सब भागें
लज्जित हो तुमसे
चरण पादुका पड़ते
खाली हुआ श्मशान  

जो नर तुझ जैसा गर
बके सुबह और शाम
यथा शीघ्र वो पायेगा
निशान-ए-पाकिस्तान


गुरुवार, जुलाई 07, 2011

हे मारन दयानिधि

हे मारन दयानिधि
कहाँ कहाँ से अर्जित की
अपनी ये श्यामनिधि
तुने कभी बताया नही
हे मारन दयानिधि
...
मैं गाँव का पढ़ने वाला
हिंदी माध्यम की मेरी शाला
आंग्लभाषा से पढ़ा न पाला
2 जी को मूढ़मति ने समझा
कोई होगी दूजी गधी
हे मारन दयानिधि

प्रथम बार ही सांसद बन के
धवल वस्त्र में कर्म स्याह के
तुम भी निकले भक्त कुबेर के
इतनी युवा अवस्था में ही
सीखी कैसी कैसी विधि
हे मारन दयानिधि

खानदान की अब लाज बचा ले
तिहाड़ महल में डेरा लगवा ले
कणीमोझी की पीड़ा हर ले
भाई बहन को साथ देखकर
शायद हर्षित हों करुणानिधि
हे मारन दयानिधि

मंगलवार, जुलाई 05, 2011

कहाँ बनता है

भूखे पेट में हो और भजन गोपाल कहाँ बनता है
इस उलझन में भी खुदा का ख्याल कहाँ बनता है 

वो नेता हैं उन्हे हक है महलों का शाही खर्चे का
चुनाव हो गये तेरी रोटी का सवाल कहाँ बनता है 

इतने मासूम नहीं जो बनायें खुद के गले का फंदा
अन्ना तू और तेरा जन लोकपाल कहाँ बनता है 

मैं मुसीबत में पड़ा और आँखों से तेरी नींद  गई 
इस मतलबी दुनिया में ऐसा कमाल कहाँ बनता है 

एक हसीना ने फकत इस्स्स्स्स्स्स्स..... लिखा, ढेरों कमेंट्स मिले
काफिर तेरे मिसरे पर ये कमाल कहाँ बनता है

ऐसा क्यूँ होता है

रहनुमा चाटुकार, ऐसा क्यूँ होता है !
कातिल पहरेदार, ऐसा क्यूँ होता है !

हर शख्स अपने ही साये से खौफजदा
मुल्क का ये हाल, ऐसा क्यूँ होता है !

घोड़ो को खाने के लाले पड़े हुए हैं ,
गधे मलाईदार, ऐसा क्यूँ होता है !

गोडसे के कृत्य का तरफदार नहीं हूँ ,
कसाब शाहीखर्च पर, ऐसा क्यूँ होता है !

आसमां सुर्ख हुआ तो बना साम्प्रदयिक,
धर्मनिरपेक्ष हरियाली, ऐसा क्यूँ होता है !

तन्हा चल पढ़ा हूँ अपनी डगर “काफिर”
उस पर भी तँजदारी, ऐसा क्यूँ होता है !