गुरुवार, जुलाई 26, 2012

गम-ए-जहाँ


वाह क्या होशियार हम निकले
खूँ मेरा करके मसीहा निकले


बने फिरते हैं जो कोतवाल-ए-शहर
उन्ही के दस्ताने रंगे हुए निकले 


जिनका दावा था, हैं चिराग-ए-शहर  
उनके कूचे से कल अंधेरे निकले


जुबाँ खामोश और आँखे बड़बड़ाती थी
मेरी रूखसती पर यूँ पारसाँ निकले 


मुझे जो सरेबज्म “काफिर” कहा करते थे
उन्हे क्यूँ कोसते कल खुदा निकले

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रविवार, जुलाई 15, 2012

ढपली अलग अलग पर राग वही भू(ख)पाली

एक व्यापारी बड़ी चिंता में था
कारण पूछा तो कहा
आषाढ़ गया सावन भी गुजर रहा
बरखा रानी अब तक नहीं आई
अगर यूँ ही रूठी रही तो 
भूखे मरने की नौबत आ जायेगी
मैंने पूछा किसान है क्या आप ?
उसने तंजिया मुस्कुरा कर कहा “नहीं”
फुटकर व्यापारी हूँ , बरसाती बेचता हूँ
बरखा अगर रूठ गई तो
किस्मत भी रूठ जायेगी
बच्चों की फीस और माँ के दवाई के पैसे
धन्ना सेठ के ब्याज में ही डूब जायेगी
इस देश में किसान ही मजबूर नहीं
और भी लोग मजदूर हैं
किसानो को तो सब्सिडी
और दो रूपये चाँवल मिल जायेगा
लेकिन साहब ये बताईये
धन्ना सेठ से जो माल खरीदा है
उसकी कीमत बंदा कैसे चुकायेगा 
बच्चों की जलती पेट  
क्या रेनकोट से ढक पायेगा   
इस देश में सबकी अपनी
अलग अलग मजबूरी है
ढपली अलग अलग हों चाहे
पर राग वही भू(ख)पाली है  
और इस बेसुरी राग के
आरोह अवरोह समझने के लिए
देश के नीली पगड़ीधारी कर्णधारों
हार्वर्ड की किताबी ज्ञान नहीं
करूणा, संवेदना और समर्पण जरूरी है