वाह क्या
होशियार हम निकले
खूँ मेरा
करके मसीहा निकले
बने फिरते
हैं जो कोतवाल-ए-शहर
उन्ही के दस्ताने
रंगे हुए निकले
जिनका दावा
था, हैं चिराग-ए-शहर
उनके कूचे से
कल अंधेरे निकले
जुबाँ
खामोश और आँखे बड़बड़ाती थी
मेरी रूखसती
पर यूँ पारसाँ निकले
मुझे जो सरेबज्म
“काफिर” कहा करते थे
उन्हे क्यूँ कोसते कल खुदा
निकले ..........
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