मैं पतली धार
दबी सहमी सी
कड़े चटानों से
दबी सहमी सी
कड़े चटानों से
किसी तरह फूटकर
अपने अस्तिव को बचाये
जन्मी अजन्मी सी
सकुचाती घबराती
बह चली झरना बन
राह में बलखाती
इठलाती मिली इक नदी
कहा भटक जाओगी
समा जाओ मुझमें
सुरक्षा का भाव पाकर
मिल गई उसमें
नदी चलने लगी
अपनी मनमर्जी से
उसका वेग बढ़ा ,आकार बढ़ा
किनारे फैले, नाम बढ़ा
पर मैंने अपना खोया था
अस्तित्व ,,,,
अपने नाम, अपनी पहचान का
किंतु गम इसका नहीं था
गम तो था
मेरा लरजपन अब
मेरा लरजपन अब
उसकी मर्जी पर कैद था
नदी आगे बढ़ी
बड़ा बनने की चाहत में
बड़ा बनने की चाहत में
सागर से जा मिली
पर अब वो भी पछताती है
भौतिक सुखों की चाह में
अस्तित्व तो जाता रहा
पानी भी खारा हो गया है !! जय हो !!
बहुत ही सटीक रचना.......बधाई......
जवाब देंहटाएंनिश्चित ही बड़ा बनाने की चाह में अस्तित्व विलोपित हो जाता है....
संजय जी वाकही में आप की रचनाये बहुत ही सुन्दर और सटीक है बहुत बहुत धन्यवाद् जी
जवाब देंहटाएंसंजय जी वाकही में आप की रचनाये बहुत ही सुन्दर और सटीक है बहुत बहुत धन्यवाद् जी
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना । गद्य और पद्य दोनों में आपकी रचनात्मक ऊर्जा देखते ही बनती है...
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लाग http://mankamrigchhauna.blogspot.com पर आपका स्वागत है।
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