सोमवार, अगस्त 29, 2011

याद-ए-माँजी

याद आतें है मुझे

बीत गये जो लम्हे

वो तेरी उँगलियाँ
जो होंठों से तरबतर होकर
कभी किताबों के सफहे
पलटा करतीं थी 
और मेरा, चेहरे को तेरे
कोई चकोर सा तकते रहना
किसी बहाने माँग कर वो किताब तेरा
अपने होठों से वही मखमली सफहा छूना
तह-ब-तह खुद ही खुला जाता था
पर्द-ए-शर्म तेरा मुझसे 
मिट गये कब पता ना चला
फासले जो दरमियाँ थे अपने 
अब ना वो आलम है
ना वो रश्म-ओ-रिवाज
तेरा चेहरा और वो तेरी गुलाबी किताब
दोनो एक दूसरे में यूँ जज्ब हुए
बेतार जाल के इस दौर-ए-जहाँ में
फेसबुक के नाम से मशहूर हुए
उँगलियाँ बेजान से चूहे पर बस 
अब फकत क्लिकही किया करतीं हैं .........

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